सीमाञ्चल समदिया,
उपेन्द्रभगत नागवंशी, जनकपुरधाम । जीवन एवं जगतके कल्याण लेल बहुत राश पर्व-त्योहार लोकमानसव्दारा मनाओल जाइत छै । अइमे किछु शास्त्रीय एवं किछु लोकपर्व सामेल रहैत छै । मानव संस्कृतिकेँ अङ्ग बनल एहन बहुतराशे पर्वोत्सव मादे कठोरव्रत ‘जीतिया’ सेहो मनाओल जाइत छै ।
अइबेर जीतीया एहे आश्विन-११गते नहाखायस’ आरम्भ भेल छै । बिशुद्ध रुपस’ जीतीया मिथिलाके लोकपर्व छै । पुरहितायी-पाण्डितायी ब्यवस्थाके मिसियो भैर अइमे दरस नइ ।
मिथिलानीसभव्दा मनाओल जाएबाला जीतिया मिथिलामे रहल बसल अन्य सनातनी हिन्दुधर्म मानबाला नारीसभव्दारा सेहो कएल जाइत छै । तहिस’ आब जितीया मात्र मिथिलानीके नइ भ’क’ थारु, दनुवार, सहितके समुदायके नारीसभकेँ सेहो सामूहिकताके पर्व भगेल छै ।
देशमे मैथिली, भोजपुरी, अवधि, थारु, बज्जिका,आदि भाषा-भाषीकेँ नारीके पर्व सेहो छै । अइ लोकपर्वमे नहा खयलाके पछाइत कमस’ ३६ घण्टा निराहार अन्नजल त्यागिक बस पड़ैत छै । तिथि अनुसार कोनो-कोनो सालमे ७२ घण्टाधैरके उपवास करए पड़ैत छै । अइबेर समय सेहो नमरल छै ४८ घण्टाधैर पवनैतिनके अन्नजल त्यागिक ब्रत बस पड़तै ।
कठोरपर्व जीतीया एवं खरजीतीया
पति-पुत्रकेँ दीर्घायु एवं पुर्खाकेँ पुजनकेँ रुपमे जीतिया पर्व मूलतः मनाओल जाइत छै । जाहिके अत्यन्त कठोर लोक विधि-विधान पबनैतिनकेँ पालन करए पड़ैत छै । जे विधि विधान एकपुस्तस’ दोसर पुस्तधैर स्वयं हस्तान्त्रित होइत आएल छै । जीतीयाकेँ उपवास अवधि भैर अन्न-फल,जल ग्रहण नइ करब ओत छैहे । कठोरता एहन निमाह पड़ैत छै जाहिमे मूँहमे आएल धूकधैर नइ घोंट पड़ैत छै !
दाँतमे खरिका नइ करब, कोनो तरहक काठी नइ तोड़ब नहाएब काल मूँहमे पानि नइ घोंटा जाए ! जौं धोखोस’ ई काज भगेल तखन क्षमा दिअ आ लिअके काज नइ होइत छै । जीतिया खरजितीया भजाइत छै !
तेहनमे सोझे पबनैतिन अपनाके दोषयुक्त मानिक जीतिया पर्व टुट जाइत छै तेकर दोषी स्वयं मानल जाइत छै । एहन लोक बिधान कायम छै , जेकर पालन जीतीयामे करही पड़ैत छै ।
उपवासकालमे जीतीया खरजीतीया भेला पर अनेक शंका उपशंकासंग पबनैतीनके कुण्ठामे बांच पड़ैत छै । जीवन-जगतमे शुभकारी, घर-परिवारमे मङ्गलकारी कोना रहत, कर-कलेश मुक्त आब कोना रहब ओ कुण्ठाभावमे बाँचब एवं प्रकृतिस’ प्रार्थना करैत रहब पर विवश होए पड़ैत छै । प्रायः बिवाहित महिला लोकपर्व जीतीया करैत छै ।
जीतीया खरजीतीया भेला पर पतिप्रेममे दुबिधा आओत की, पुत्रशोकमे परब की, गृह-क्लेश होएत की, घर-परिवार, समाङ्ग-समाजके अन्य सदस्यके दृष्टि केहन रहत, केहन मौगी छै.. जीतीया खरजीतीया कलेलकै टोन-उपराग सह पड़त की !
नानाथरीके आक्षेप लागब ताहिस’ समेत चिन्तित रहब स्वाभाविक भजाइत छै । अहि ओजहस’ जीतीयाके अत्यन्त कठोरपर्व मानल जाइत छै । जाहिमे एकर अप्पन बिधान छै । ओहो लोक विधान,परम्परास’ चलल आएल !
पुर्खा पुजन एवं पति-पुत्रकेँ दीर्घायुके पर्व
नहाखाय दिन पवित्र जलाश्य स्थलमे जाक’ नहा-धोक’ शुद्ध होएब । घिरउराके पात पर अपन पुर्खा-पीतर-पीतराइनके नामस’ खरी, तेल चढ़ाओल जाइत छै । तेलखरी चढ़ाबके तातपर्य होइत छै ,दिबंगत पुर्खाके स्मरण करब ।
ई पर्व पीतरपक्षमे होइत छै । पुरुषवर्ग अपन दिबंगत पुर्खा बाप,बाबा,पितीया आदिके नाम पर जलाश्यमे कुश ल’क’ पानी दैत जलतर्पण करैत छै । एवं मृत्यु भेल तिथिक दिन मोक्षप्राप्तिक आशसंग पीण्डदान करैत, आत्मशान्तिके कामना करैत छै । ठीक अहिना गौणरुपमे नारीसभ सेहो अपन दिबंगत माय,सासु, दैया-दादी,आजी-पितराइन आदिकेँ जल अर्पण करैत पीण्डदान करैत छै । फरक एहे होइत छै ।
पुरुषवर्ग एकपखधैर पवित्र जलाश्यमे जाक नीयमीत पुर्खाके नामस’ जलतर्पन करैत छै आ बादमे अरबा चाउरके फूलाक पीसक पीण्ड बनाक पुरोहिस’ पुजाक पीण्डदान करैत छै । महिलावर्ग जीतीयाकेँ नहाखाय दिन मात्र जलाश्यमे जलके स्थान पर तेल एवं पिण्डके स्थान पर खरी चढ़ाक पुर्र्खा-पीतराइनकेँ स्मरण करैत जलतर्पण एवं पीण्डदान करैत छै ।
उपवास अवधिकेँ समय भिन्सरमे एवं सायंकालके स्नान समयमे फेर ई प्रकृया नइ करैत छै । मुदा नहाखायके दोसरदिनके उपवास आरम्भ करबस’ पहिनेके भोररबामे घीउराके पातपर दही-चुरा-गूड़-मीठा, खीरा,अंकूरित केराउ चढ़ाक फेरस’ पुजन करैत छै । अइसमयके पुजनमे जीम्बूतवाहन(जीतवाहन)जे पति-पुत्रकेँ दीर्घायुके प्रतिक लोकदेवताकेँ नामस’ खुजल आकशके आंगनमे पुजन कएल जाइत छै ।
तेकराबाद कठोर ब्रत जीतियाके उपवास क्रम पुरा करैत तिनदिन पछाइत पुन जीत-जीतवाहनके प्रतिकात्मक रुपमे पुजन करैत ब्रत समापन कएल जाइत छै । मूलतः जीतीयाके एहे लोक विधान छै । प्रसादके रुपमे माथमे चढ़ल तेल लगाक, दही चुरा केराउ, खीरा खाक पवनैतिन व्रत समापन करैत छथिन ।
तेकरबाद मधुर मिष्ठान एवं अन्य भोजन ग्रहण कएल जाइत छै । जीतीयापर्वमे नहाखायस’ पारन करबधैरके दिनमे ई अनिवार्यता नइ छै शाकाहारे भोजन खायी वा मासाहार भोजन करी । श्रध्दा-निष्ठा जेहन होए,जे मीले-जुड़ए ओहन भोजन खायल जाइत छै । एहो छुट अहि लोक पर्व जीतीयामे छै ।
एहे कारण छै लोक मडूवाके रोटी माछ सेहो खाक उपवास करैत छै । भेरबामे दही चुरा मीठ्ठा खाइत छै । जाहिस’ एकटा कहबी मिथिलामे बड प्रचलीत छै-‘‘ जीतीया पवनी बड भारी धिया-पुताके ठोइक सुतौलक अपने खयलक भैर थारी ’’!
आडम्बरी प्रथा एवं शास्त्रीय बन्हन मुक्त पर्व
अइपर्वमे शास्त्रीय कोनो बन्हन नइ । अपन परम्परा अपने निमाहब आ अपनेस’ अपनाके नियन्त्रित करब नीति छै । झूठ-सत्य, नीक-अधलाह विध विधानसब अपनेस’ अपने करब, अपने सहब अपने भोगब !
एहन प्रचलन जीतीयामे छै । तथापि एम्हर किछु दशकके भितर अहू लोकपर्वमे पुरोहितायी बर्चश्व बढ़ लागल छै । विशेषरुपस’ शहरी परिवेसमे रहनिहारलोकसभकेँ अहूपर्वके शास्त्रीय पर्वजकाँ पुरोहित वर्ग जीतियाके कथा-पेहानी सुनाएब लाथे दान-दक्षिणा लेब, यजमानी करब प्रथाजकाँ पवनैतीनकेँ नियन्त्रित एवं नियमन करब काज करए लागल छै ।
मूलरुपस’ जनजातीय समुदायस’ बिकसित एवं तेरह्म शताब्दिस’ सार्वाधिक प्रचलनमे आएल लोकपर्व जीतीयाकेँ सेहो शास्त्रीयपर्वके रुपमे ब्याख्या बिश्लेषण करैत पण्डितायी ब्यवस्था भितरके पर्वके रुपमे प्रचारित बिस्तारीत नइ भजाए ।
जाहिस’ एकर अपन मौलीकता मरब एवं आडम्बरी आवरण आ व्यवसायी धर्म-दर्शन नइ बैन वा बनादेल जाए,तहीके डर छै, सचेतता अइदिस सभकेँ हुअ चाही । चित्रश्रोतःसन्तोष कर्ण
प्रतिक्रिया